सी पी सिंह, एसोसिएट एडिटर-ICN
इस , जग – आँगन – का – कल, भावुक – हो – ढूँढेगा ,
उस – वृक्ष को , जिसमें , शब्द , फूल – बन – खिलते – थे |
जिसकी कलियाँ , खुद – चिर – युग – का कारवां – बनीं,
निज – केशर को , जो – खुद , गुबार – कह – हिलते – थे ||
जिसके पत्ते , हँसि, प्रकृति के बन्दनवार – बने |
हरी – कोपलें भी , जग – हित , फूलों सा प्यार – सनें |
फिर , को, उसकी – मुद – कलियों के सहकार – गने ?
जग के –मन,जिन –फूलों –संग –खिलते थे |उस वृक्ष को, जिसके –शब्द ,फूल बन,खिलते –थे ||
जिसने – देखा – धोबन – को , कपड़े – ले – जाते |
दुखी – जीवों – को , जग – सर – में – हिचकोले – खाते |
युग – ने – देखा जिसे, जग – की – लघु (भी) पीड़ा – गाते |
सभी , सुख – दुःख – भाव, जिसके – गीतों – में – मिलते – थे |
युग – सत्य – को , जिसके – शब्द , फूल – बन – खिलते – थे ||
जो, तन – पर खड़े – रह, न – तन – ले के – लौटा |
कहाँ – से – कहाँ – जा ? न – धन – ले – के – लौटा |
लिए – सब – म्रदुल (भावुक) मन ,” न “ मन – ले – के – लौटा |
हर – तरंग – गति पर जिसकी , मन – हिलते – थे |
उस – युग – वृक्ष को, जिसके – शब्द , फूल – बन – खिलते – थे ||
जिनकी – छाया में , जीवित – सम्मेंलन – थे |
जिनसे – प्रेरित – बहु – रचनात्मक – खेलन – थे |
जो – समाज – के – प्रेरक , युग के ठेलन थे |
खुद , केला बनि ,जो , बेरी – संग – छिलते – थे |
युग – सार – को , जिसके – भाव , फूल बन – खिलते – थे ||
सिंहासन सा – थान जिनका – सम्मलेन – में |
जग – आँगन – की – शान – सार्थ – हिय – खेलन – में |
उनको – भी – दिए – फल – फूल , जो – थे – संग – ढेलन में |
जिन – प्रेरित , खग – भ्रमर जीव – बहु – ठिलते थे |
जिनके – भाव , फूल – बन – शाश्वत – खिलते – थे ||
हर – हेमन्त – को – जो , कहते – थे – बसन्त – लिए |
हर – पतझड़ , मधुमास- सदृश – लखि – अन्त – जिए |
सौ – पतझड़ की – बोइ (राखि) लालसा – अपन – हिए |
शाश्वत – ऊर्जावान , नौ – दशक – चलते – थे |
जिनके – शब्द , फूल – बन – युग – में – खिलते – थे ||
मैं , यों – ही – डोलूँगा , गाता – गुनगुनाता |
“ काव्य – जगत – का फ़कीर “ सा – था – जिनका – नाता |
भू – अम्बर बीच – लकीर – सा, शब्दों – से – नाता |
“ सौ – वर्षों – तक – रहूँगा “ , कहे , जिन्हें – मिलते – थे |
जिनके – शब्द , फूल – बन – जग में – खिलते – थे ||
कविता की , हर – संज्ञा का – सम्मान – स्वयं – जो |
अलंकरण – के – हर – विशेषण – का मान – स्वयं –वो |
अपने – गुणों के – मूल – ब्याज – के – भान – स्वयं – हो |
कर्म – भूमि – पर , गीत की – फसल – उगा , खिलते – थे |
जिनके – शब्द, फूल – बन – जग – में – खिलते – थे ||
लहरों – में , “ कानपुर – की – पाती “ उछले |
कभी , “ कारवाँ – गुजर – गया “, कहते – वे – भले |
कभी , देख – के चलनें को , कहें – मचले |
और , अन्त – तलक , युव – सम – झिलते थे |
जिनके – शब्द , फूल – बन के – खिलते – थे ||
कितने – खुश – हों जो , लघु (भी) पाकर |
मुद – शिशु – सम – मृदुल , हँसी – लाकर |
सबु , कह देते – थे , लिखि और – गाकर |
जीवन – संघर्ष पे – भी – जो – खिलते – थे |
जो – शब्द , फूल – बन – के खिलते – थे ||
नहिं – समझा जग , जिन – दृग – की – नमी |
क्या , महानता के – उर – में भी – थी – कमी ?
“ जिन्दगी – वेद – थी ,जो , जिल्द – बाँधने में रही – रमी ?
वट – वृक्ष – भी – कभी , दुखि – छिलते – थे ?
जहाँ (जिनपर) शब्द , फूल – बन – खिलते – थे ??
प्रेम – आध्यात्म और – दर्शन की त्रिवेणी , लिए |
भाव – भाषा – स्वरों – की – स्व – श्रेणी – हिए |
शब्द , पत्ते – पुहुप – दर्श – वेणी – किए ?
हर – छोटी भी बात , पा , खिलते – थे |
जिसमें – शब्द , फूल – बन – खिलते – थे ||
कभी , स्वप्न – झरे – जहाँ – फूलों – से |
चले , दस – दिसि – निरखि – वे – भूलों – बे |
“ जीवन – नहीं – मरा करता है ?” के – कूलों पे |
“ मोती – ब्यर्थ – लुटाने – वाले , भी – मिलते – थे |
“ छुप – छुप – अश्रु – बहाकर “ – भी जब – वे – खिलते थे ||
जिस – वृक्ष – की – अन्तर्ध्वनि – विभावरी – प्राणगीत |
दर्द – दिया – है, बादर – बरसो, जिमि – दो – गीत |
नीरज – की – पाती , आसावरी – संघर्ष – नीत |
जो, सबके लिए, गीतिका बनकर – खिलते – थे |
वह – वृक्ष कि – जिसमें , शब्द – फूल – बन – खिलते – थे ||